विपस्सना मानव इतिहास का सबसे अधिक महत्वपूर्ण ध्यान प्रयोग है जिसे ढाई हजार साल पहले महान मनोवैज्ञानिक गौतम बुद्ध ने खोजा था. संसार में जितने लोग विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से नहीं. आज यह सारे बंधनों व सीमाओं को लांघ कर पूरी दुनिया में हर जाति, संप्रदाय, पंथ,मान्यता व देश के लोगों में लोकप्रिय हैं. विपस्सना आचार्य गोयनका जी ने म्यांमार से 1969 से लाकर भारत में फिर से स्थापित किया और आज मानव कल्याण का आधार बनी हुई है.
विपस्सना अनूठी वअदभुत साइंटिफिक साधना है. विपस्सना शब्द का अर्थ होता है, देखना, भीतर झांक कर स्वयं का निरीक्षण करना, लौटकर देखना.
बुद्ध कहते है. इहि पस्सिको, आओ और देखो!..
बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर, आत्मा परमात्मा को मानना जरूरी नहीं है। बुद्ध का मार्ग अकेला है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास आदि की कोई जरूरत नहीं है। बुद्ध का धम्म वैज्ञानिक धम्म है.
बुद्ध कहते है. आओ और स्वयं देख लो.मानने की जरूरत नहीं है। देखो, अनुभव कर जानो फिर मानो. और जिसने खुद देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है. मान ही लेना पड़ता है.सत्य को जानने, ज्ञान प्राप्ति, बुद्धत्व प्राप्ति के लिए बुद्ध के देखने और दिखाने की जो विधि थी उसे ही विपस्सना कहते है.
विपस्सना बहुत सीधा, सरल प्रयोग है लेकिन मन पर काबू करना कठिन है. अपनी आती जाती श्वास को सजगता से, साक्षी भाव से देखना. इसे आनापान कहते है जो विपस्सना का पहला कदम है. श्वास जीवन है, श्वास और शरीर से पैदा होने वाली संवेदनाओं का गहरा संबंध है. काम, क्रोध, घृणा, लोभ, प्रेम, करुणा आदि मे श्वास की गति अलग अलग होती है और शरीर की संवेदनाएं भी अलग. आनापान में श्वास जैसी है वैसे ही देखना , प्राकृतिक शुद्ध. न धीरे तेज करना और न किसी काल्पनिक रुप, आकृति, शब्द, मंत्र आदि की मिलावट करना. जबकि प्राणायाम में श्वास को बदला जाता हैं.अगले कदम में मन पर सवार होकर सारे शरीर को ध्यान की आंखों से संवेदनाओं का निरीक्षण व समता भाव से देखना होता हैं.
विपस्सना मन को काबू कर , मन में पैदा होने वाले काम, क्रोध, मोह लोभ, घृणा जैसे विकारों को दूर कर मन को निर्मल करने की शोधन ध्यान विद्या है. क्योंकि मन ही सारी गतिविधियों का प्रधान है इसलिए इसे काबू कर शुद्ध करना जरूरी है. व्यक्ति व सम्पूर्ण समाज व की सुख शांति के लिए यह बहुत जरूरी है.
आखिर क्या होगा इस तरह श्वास व पूरे शरीर में संवेदनाओं को देखने से? दरअसल इस तरह देखते देखते ही चित्त के सारे रोग दूर हो जाते हैं, शरीर व जीवन की अनित्यता का प्रत्यक्ष दर्शन व अनुभव होता है. साक्षात दिखता है कि मैं देह नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, सब परिवर्तनशील है, क्षणभंगुर है, नश्वर है. और जब नश्वर है तो मैं क्रोध, मोह , लोभ, घृणा, तृष्णा क्यों करु?
और जो अनुभव होता है उसका कोई उत्तर दे न पाओगे. जान तो लोगे लेकिन गूंगे का गुड़ हो जायेगा. इस मिठास को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाओगे. वही है उड़ान. पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे. मौन हो जाओगे. भीतर गुनगुनाओगे पर कह न पाओगे.
विपस्सना के लिए आचार्य गोयनका जी द्वारा स्थापित दुनिया भर में केन्द्रों पर नियमित अलग अलग दिनों के कोर्स संचालित होते है. इसके बाद दैनिक जीवन में कहीं भी कर सकते है. किसी को कानों कान पता भी न चले। बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, बाजार में, घर में, बिस्तर पर लेटे हुए. किसी को पता भी न चले. क्योंकि न तो पूजा पाठ या मंत्र बोलना है, न किसी का स्मरण. शरीर के किसी विशेष आसन की भी जरूरत नहीं है.सहजता सरलता से उठते, बैठते, खाते, चलते ,ऑफिस में ,खेत में कहीं किया जा सकता है.और जितनी ज्यादा विपस्सना जीवन में फैलती जाये उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे..
इहि पस्सिको!..आओ और देख लो.!
कल्याण मित्र सत्यनारायण गोयनका जी का कहना था कि यदि संसार की यह पीढी विपस्सना कर लें तो अगली पीढी में कोई युद्ध नहीं होगा.
सबका मंगल हो…….सभी निरोगी हो