तथागत बुद्ध कहते है………..
मोहं भिक्खवे, एकधम्मं पजहथ ।
अहं वो पाटिभोगो अनागामितया ।।
” भिक्खुओं, केवल एक मोह का त्याग कर दो, तो मैं तुम्हारे अनागामी होने की जमीन लेता हूँ ।”
मोह याने मूढता, अज्ञान अवस्था, अविद्या । मोह अवस्था में ही हम नए नए संस्कारों का सृजन करते रहते हैं, मन को नए नए विकारों से विकृत करते रहते हैं।हमें होश ही नहीं रहता कि हम क्या कर रहे हैं ।हम अपने आपको राग के बन्धनों में जकड़े रखते हैं, द्वेष के बन्धनों में जकड़े रखते हैं । इस अनजान अवस्था में इन बन्धनों की गांठे हम बान्धते ही रहते हैं ।
यदि मोह दूर हो याने हमें होश रहे, सावधानी रहे, जागरूकता रहे, तो अपने चित्त पर नए संस्कारों की गहरी लकीरें पडने ही नहीं देंगे अपने आपको राग और द्वेष के बन्धनों में बन्धने ही नहीं देंगे ।यह ज्ञानपूर्ण जागरूकता ही प्रज्ञा हैं, जो मोह को जड से उखाड फेंकती हैं ।
अतः हमें प्रज्ञा को जागृत रखने के लिए और पुष्ट बनाए रखने के लिए विपश्यना करते रहना हैं ।
……..भवतु सब्ब मंगलं