बुद्ध कहते हैं कि यश ही चाहो तो ध्यान का यश चाहना, धन का नहीं. यश ही चाहो तो ज्ञान का यश चाहना,भौतिक पदार्थों का नहीं…….
यश ही चाहो तो अंर्तज्योति का यश चाहना. बाहर कितनी ही रोशनी कर लो और भीतर अंधेरा रहे. बाहर कितने ही उजले दिखो लेकिन मन मैला रहे. लोग तुम्हारी कितनी ही प्रशंसा करें लेकिन तुम खुद अपने भीतर आनंद से न भर जाओ तो यशस्वी ना हुए. उस यश का क्या मूल्य है. यश तो एक ही है वह है ध्यान और ज्ञान का.
दो तरह के यश है .एक जो दूसरे तुम्हें देते हैं और दूसरा जिसे तुम अपने भीतर पैदा करते हो. एक तो धन का यश, पद पॉवर का यश, राजनीति व संसार का फैलाव है. इस यश को बहुत तवज्जो मत देना क्योंकि मौत उस सब को छीन लेगी. उसके बाद भला कितने दिन लोग याद करते हैं. पानी पर खींची गई लकीर है यह जीवन. खींच भी नहीं पाती और मिट जाती है.
एक यश और भी है वह किसी दूसरे से नहीं मिलता. यह ज्ञान व ध्यान की आत्म प्रतिष्ठा से मिलता है. वह ज्ञान अर्जन से मिलता है ,स्वयं में केंद्रित होने से मिलता है.मन को निर्मल करने से मिलता है. वर्षों के ज्ञान से मिलता है. वह ध्यान का यश है, ज्ञान का यश है.
भवतु सब्ब मंगलं…….सबका मंगलं हो.