इतिहास में पहली बार चेचक व अन्य कई वैक्सीन बौद्ध भिक्षुओं की प्राचीन चिकित्सा पद्धति के आधार पर बने
प्राचीन बौद्ध काल में प्राकृतिक चिकित्सा के दुर्लभ तरीके अपनाए जाते थे. बुद्ध के समय के वैद्य जीवक व बाद में चरक, सुश्रुत व नागार्जुन जैसे चिकित्सक विश्वविख्यात है.
नालंदा, तक्षशिला व विक्रमशिला जैसे शिक्षा केंद्रों पर दुनिया के कोने कोने से विद्यार्थी धम्म, ध्यान, साहित्य, खगोल विज्ञान, चिकित्सा आदि सीखने आते थे. तक्षशिला में चिकित्सा शिक्षा पढ़े हुए जीवक ने बुद्ध व अजातशत्रु की भी चिकित्सा की थी .वह विश्व इतिहास का पहला शल्य चिकित्सक था.
उस काल में हजारों भिक्षु नगरों से बाहर जंगलों में विहारों में रहते थे. अकसर सांप काटने से भिक्षुओं की मौत हो जाती थी. इसी तरह कई रोगों के प्रकोप से प्रजा परेशान थी. इनसे बचाव के लिए भिक्षुओं ने कई चिकित्सा पद्धतियां इजाद की.
स्वस्थ बौद्ध भिक्षु सांप काटने के जहर के असर के खिलाफ कम मात्रा में सांप का जहर पी जाते थे जिससे शरीर में एंटीबॉडी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती थी. इसी तरह चेचक से बचाव के लिए रोगी के शरीर के फफोलों से द्रव व त्वचा की खुरचन के पाउडर को स्वस्थ व्यक्ति के नासा छिद्रों के पास लगाया जाता था. इसके अलावा चेचक रोगी के ताजा फफोलों में बारीक सुई घुसाकर उसे स्वस्थ व्यक्ति की भुजा पर गोलाई में कई जगह चुभोया जाता था जिससे उसके अंदर एंटीबॉडी बन जाती और बाद में उसे चेचक नहीं होती थी.
जब भारत से बौद्ध धम्म लुप्त हो गया तो इन चिकित्सा पद्धतियों को भी समाज भूल गया. लेकिन इससे पहले ये अनमोल तकनीकें तिब्बत, चीन, बर्मा आदि पड़ोसी देशों में बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से जा चुकी थी. तिब्बत और चीन में यह काफी विकसित हुई और आज भी बड़े पैमाने पर उपयोग में ली जाती हैं.
पंद्रहवीं सदी के बाद जब चेचक विश्व के काफी भूभाग में फैल गया तो पश्चिम के वैज्ञानिकों ने बचाव के टीके बनाने की खोज शुरू की. आखिर भारत व चीन की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों को खंगाला और सूत्र वहीं से मिला.
1796 में पहली बार ब्रिटेन के डॉ एडवर्ड जेनर ने बौद्ध भिक्षुओं की पद्धति के आधार पर खोज शुरू की. गायों में होने वाली चेचक (काऊपोक्स) मनुष्य में भी फैल जाती है. मनुष्य में चेचक (स्मालपोक्स) का वायरस गाय के चेचक के वायरस से काफी मिलता जुलता है. डॉ जेनर ने पहली बार गाय से एक महिला में फैली चेचक के फफोलों से द्रव व सुखी खुरचन को एक बच्चे के भुजा पर हल्का चीरा लगाकर प्रवेश कराया उसके शरीर में एंटीबॉडी बन गई है . फिर चेचक रोगी की त्वचा खुरचन व द्रव के सूखे पाउडर को एक स्वस्थ व्यक्ति के भुजा में हल्का कट लगाकर प्रवेश कराया. इसी तरह स्वस्थ लोंगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने के लिए यह प्रयोग होने लगा.
लेकिन डॉ जेनिफर व सरकार के सामने भारी मुश्किल खड़ी हो गई. ब्रिटेन के कई शहरों में धार्मिक रूढिवादियों ने जेनिफर के खिलाफ धरने व रैलिया शुरू कर दी. जेनिफर के पुतले जलाए गए. उनका कहना था कि यह उनके धर्म के खिलाफ हैं, जानवर से लिया पदार्थ काम में लिया जाता है,उनकी निजी स्वतंत्रता के खिलाफ है आदि.
डॉ जेनिफर ने मानव के दुखों को दूर करने के लिए प्रयोग जारी रखे और 1798 में पहली बार चेचक के खिलाफ एक प्रभावी वैक्सीन तैयार किया. अगले दो सौ साल तक दुनिया का मानव समाज चेचक को ईश्वरीय प्रकोप बता कर इसकी भयंकर पीड़ा भोगता रहा लेकिन सामाजिक व धार्मिक अंधविश्वासों के कारण बड़े पैमाने पर वैक्सीन का प्रयोग नहीं होने दिया. निरंतर विरोध किया. इसे दैवीय प्रकोप बताकर भारत में भी लंबे समय तक वैक्सीन तो दूर दवा का भारी विरोध हुआ.
लेकिन जब चेचक ने विकराल रूप धारण कर लिया, लाखों लोग हर साल चपेट में आने लगे तो ब्रिटिश सरकार सहित कई देशों में सख्ती के लिए कानून बनाए. शिक्षा के साथ लोगों की धारणाएं बदलने लगी.आखिर विज्ञान की जीत हुई. विश्वव्यापी टीकाकरण अभियान के बाद 1979 तक इस भयंकर महामारी पर विजय हासिल की.
आज उन बौद्ध भिक्षुओं की इजाद की गई प्राचीन तकनीक व डॉ एडवर्ड जेनर जैसे वैज्ञानिक की बदौलत दुनिया चेचक से मुक्त हैं. इसके बाद सांप के जहर से बचाव का टीका भी उसी पद्धति के आधार पर तैयार किया गया. इस टीके में कमजोर व निष्क्रिय किया गया सांप का जहर ही होता है.
फिर वैज्ञानिकों ने एक के बाद एक प्लेग, डिप्थीरिया, काली खांसी,खसरा, हेपेटाइटिस, इनफ्लुएंजा, हैजा, एंटी स्नेक वेनम, टेटेनस, एमएमआर, पोलियो, मीजल्स आदि कई रोगों के वैक्सीन बनाए. संपूर्ण मानव जगत उन महान बौद्ध भिक्षुओं व वैज्ञानिकों के योगदान के आगे नतमस्तक है.
भवतु सब्ब मंगलं
सभी निरोगी हो.
आलेख : डॉ. एम एल परिहार