बुद्ध ने अपने ही धम्म में अपने किसी स्थान का दावा नहीं किया.
ईसा मसीह ने ने ईसाईयत का परमेश्वर होने का दावा किया। इससे आगे उन्होंने यह भी दावा किया कि वह परमेश्वर का बेटा है। ईसा मसीह ने यह भी शर्त निश्चित की कि जब तक कोई मनुष्य यह स्वीकार न करे कि ईसा मसीह परमेश्वर का बेटा है, तब तक उसकी मुक्ति हो ही नहीं सकती। इस प्रकार ईसा मसीह ने किसी भी ईसाई की मुक्ति के लिए अपने आप को परमेश्वर का बेटा मानने की अनिवार्य शर्त रख कर, ईसाइयत में अपने लिए एक ख़ास स्थान बना लिया।
इस्लाम के पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब का दावा था कि वह खुदा द्वारा भेजे गए इस्लाम के पैगंबर थे । उन्होंने आगे और दावा किया की कोई आदमी तब तक निज़ात (मुक्ति)नहीं पा सकता जब तक वो ये दो बातें ओर स्वीकार ना करें। इस्लाम में रह कर निजात की इच्छा करने वाले के लिए यह स्वीकार करना आवश्यक है कि हज़रत मोहम्मद साहब खुदा के आख़िरी पैग़म्बर है। इस प्रकार इस्लाम में निजात ( = मुक्ति ) केवल उन्हीं के लिए निश्चित है जो ऊपर की दो शर्ते स्वीकार करते हैं । इस तरह हज़रत मुहम्मद साहब ने किसी भी मुसलमान की निजात ( मुक्ति ) उसके द्वारा उन्हें खुदा का पैगंबर स्वीकार करने की अनिवार्य शर्त पर निर्भर करवा कर अपने लिए इस्लाम में एक विशेष स्थान बना लिया । बुद्ध ने कभी भी ऐसी कोई शर्त नहीं रखी । उन्होंने स्वंय को शुद्धोदन और महामाया का स्वाभाविक पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा नही किया। उन्होंने ईसा मसीह और हज़रत मुहम्मद साहब की तरह मुक्ति की शर्त लगाकर अपने धम्म शासन में अपने लिए कोई ख़ास स्थान नही बनाया। यही कारण है कि इतना प्रचुर ग्रंथसमूह रहते हए भी हमें बुद्ध के व्यक्तिगत जीवन के बारे
में इतनी कम जानकारी प्राप्त है । जैसा कि ज्ञात है , बुद्ध के महापरिनिब्बान के बाद राजगृह में प्रथम बौध्द संगीति हुई थी । उस संगीति में महाकस्सप अध्यक्ष थे । आनंद , उपालि और कपिलवस्तु के ही ये और जो जहां – जहां बुद्ध गए प्रायः हर जगह । रहे , वे सब वहां उपस्थित थे । लेकिन संगीति के अध्यक्ष महाकस्सप ने क्या किया ? उन्होंने आनंद से कहा कि वह ” धम्म ” को दोहराएं और तब’ संगीति- कारकों’ से पूछा कि ” क्या यह ठीक है ? ” उन्होंने ” हां ” में उत्तर दिया । महाकस्सप ने तब उस विषय पर प्रश्न करने समाप्त कर दिये । तब महाकस्सप ने उपालि से कहा कि वह ‘ विनय ‘ को दोहराएं और ना से पूछा कि ” क्या यह ठीक है ? ” उन्होंने ” हां ” में उत्तर दिया । और तब’ संगीति- कारकों’ से पूछा कि ” क्या यह ठीक है ? ” उन्होंने ” हां ” में उत्तर दिया । महाकस्सप ने तब उस विषय पर प्रश्न करने समाप्त कर दिये । तब महाकस्सप को चाहिए था कि वह वहां संगीति में उपस्थित किसी को तीसरा प्रश्न करते और आज्ञा देते कि वह बुद्ध के जीवन की मुख्य – मुख्य घटनाओं को बताएं । लेकिन महाकस्सप ने ऐसा नहीं किया । उन्होंने सोचा कि ” धम्म ” और ” विनाय” ही दो ऐसे विषय हैं जिनसे संघ का सरोकार है । यदि महाकस्सप ने बुद्ध के जीवन की घटनाओं का ब्यौरा तैयार करा लिया होता , तो का हमारे पास बुद्ध का एक पूरा जीवन चरित्र होता । बुध्द के जीवन की मुख्य- मुख्य घटनाओ का एक ब्यौरा तैयार करवा लेने की बात महाकस्सप को क्यों नहीं सूझी ? इसका कारण उपेक्षा नहीं हो सकती । इसका केवल एक ही उत्तर है कि बुद्ध ने अपने ‘ धम्म – शासन ‘ में अपने लिए कोई विशेष स्थान सुरक्षित नहीं रखा था । बुद्ध और धम्म सर्वथा अलग – अलग थे । उनका अपना स्थान था , धम्म का अपना । बुद्ध द्वारा स्वयं को धम्म से पृथक रखने का एक और उदाहरण है उनके द्वारा अपना उत्तराधिकारी बनाना अस्वीकार करना । दो या तीन बार बुद्ध के अनुयायियों ने उनसे निवेदन किया कि वे किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करें हर बार बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया ।उनका उत्तर था , ” धम्म ही स्वयं का उत्तराधिकारी होना चाहिए । ” ” सिद्धांत को स्वतंत्र रूप से अपने पर ही निर्भर रहना चाहिए किसी व्यक्ति के अधिकार के बल पर नहीं । ” यदि सिद्धांत को किसी व्यक्ति के अधिकार पर निर्भर रहने की आवश्यकता है, तो फिर वह सिद्धान्त ही नहीं। ” यदि धम्म की प्रतिष्ठा के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रटते रहने की आवश्यकता है , तो वह धम्म नहीं है । ” का नाम रटते जाने की । अपने धम्म को लेकर स्वयं अपने बारे में बुध्द का यही दृष्टिकोण था।
साधु साधु साधु
संदर्भ. बुध्द और उनका धम्म
राजेन्द्र के. निब्बाण
9467789014