राजचिकित्सक जीवक की धम्मदीक्षा
जीवक राजगृह की एक वेश्या शालवती का पुत्र था । जन्म के तुरंत बाद अवैध संतान होने के कारण उसे एक टोकरी में रख कर कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था। बहुत बड़ी संख्या में लोग कूड़े के ढेर के पास खड़े होकर ‘ बच्चे ‘ को देख रहे थे । राजकुमार अभय का उधर से गुज़रना हुआ। उनके पूछने पर लोगों ने बताया , ‘ यह जीवित है । कारण से उसका नाम जीवक पड़ा । राजकुमार अभय ने उसे गोद ले लिया और उसका पालन – पोषण किया ।
जीवक बड़ा हुआ तो उसे पता लगा कि किस प्रकार उसको बचाया गया था , उसकी तीव्र अभिलाषा हुई कि वह दूसरों का जीवन बचाने के लिए स्वयं को समर्थ बनाए । इसलिए वह राजकुमार अभय को बिना बताए ही तक्षशिला विश्वविद्यालय चला गया और वहां उसने सात वर्ष तक चिकित्सा – शास्त्र का अध्ययन किया । राजगृह लौटकर उसने चिकित्सक के रूप में इलाज करना आरंभ किया और बहुत ही कम समय में अपने पेशे में नाम और प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। उसने सर्वप्रथम साकेत के एक सेठ की पत्नी का इलाज किया । उसको रोग – मुक्त करने पर उसे सोलह हजार कार्षापण , एक दास , एक दासी और घोड़े सहित एक गाड़ी मिली । उसकी प्रसिद्धि जानने पर राजकुमार अभय ने उसे अपने ही भवन में रहने को आवास दिया।
राजगृह में ही उसने राजा बिम्बिसार का भयानक भगंदर – रोग ठीक किया । कहा जाता है कि लिए उसे राजा बिम्बिसार की पांच सौ रानियों के आभूषण पुरस्कार के रूप में प्राप्त हुए। जीवक की अन्य उल्लेखनीय चिकित्साओं में उसकी एक वह शल्य – चिकित्सा थी जो राजगृह के एक सेठ की खोपड़ी पर की थी , और दूसरी बनारस के उस श्रेष्ठी – पुत्र की जो अंतड़ियों के भयानक रोग से पीड़ित था ।जीवक को राजा तथा उनकी रानियों का ‘ राज – चिकित्सक’ नियुक्त किया गया । लेकिन जीवक की तथागत के प्रति बहुत आसक्ति एवं श्रद्धा थी । परिणामस्वरूप वह बुद्ध और संघ के भी चिकित्सक बने । वह तथागत के उपासक बन गये । बुद्ध ने उन्हें भिक्खु नहीं बनाया , क्योंकि वह चाहते थे । कि वह स्वतंत्र रहकर चिकित्सा द्वारा रोगियों और आहतों की सेवा करते रहें । जब महाराजा बिम्बिसार की मृत्यु हो गई तो जीवक उनके पुत्र अजातशत्रु के भी चिकित्सक बने रहे , और पितृ – हत्या का अपराध करने वाले अजातशत्रु को बद्ध के पास लाने में मुख्य भूमिका उन्हीं की रही ।
साधु साधु साधु
सन्दर्भ- बुध्द और उनका धम्म
राजेन्द्र के. निब्बाण
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