EK GHUMKKAD KI DHAMM DIKSHA एक घुमक्कड़ की धम्मदीक्षा

।।एक घुमक्कड़ की धम्मदीक्षा।।

बहत पुरानी बात है , राजगृह में एक अत्यंत असंयत आदमी रहता था। जो न तो अपने माता – पिता का ही आदर करता था और न ही दूसरे बड़े बड़ों का । जब भी उससे कोई पाप – कर्म हो जाता तो वह सूर्य , चंद्रमा तथा अग्नि – देवता की ही पूजा किया करता था ताकि उसे पुण्य लाभ हो और वह अपने में मस्त रहे । तीन साल तक लगातार पूजा में इतना शारीरिक कष्ट उठाने पर भी उसे किसी प्रकार की शांति नहीं मिली। अंत में उसने सावत्थि पहुंच कर तथागत से धम्म की जानकारी प्राप्त करने का निश्चय किया । वह वहां पहुंचा और तथागत के तेजपूर्ण व्यक्तित्व के दर्शन किए , तो वह उनके चरणों पर गिर पड़ा और अपनी असीम प्रसन्नता प्रकट की । तब तथागत ने उसे बताया कि पशुओं की बलि देना मूर्खता है और ऐसे बाह्य कर्मकांडों में लगे रहना व्यर्थ है जिनका मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता , जिनमें साथ के आदरणियों का आदर नहीं होता , और उनके प्रति अपने कर्तव्यपूर्ण व्यवहार का ज्ञान भी नहीं होता है। अंत में उन्होंने कुछ सन्मार्ग की गाथाएं कहीं ।
तब ग्रामीण , विशेष रूप से बच्चों के माता – पिता , तथागत की वंदना करने के लिए उनके पास आए । बच्चों के माता – पिता को देखकर और उनके बच्चों का विवरण सुनकर तथागत मुस्कराए और ये गाथाएं कहीं ” श्रेष्ठ मनुष्य तृष्णा से सर्वथा मुक्त होता है । वह स्वयं ज्ञानसंपन्न होकर प्रकाशयुक्त स्थान पर रहता है । यदि संयोगवश उसे दुख प्राप्त हो जाए तो भी वह बिना व्याकुलता के प्रसन्न रहता है और उस समय वह अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है । “ भद्र पुरुष सांसारिक बातों से सरोकार नहीं रखता । वह न धन , न संतान की , और न जगह – जमीन की इच्छा करता है । वह सावधान रहकर सीलों का पालन करता है और सर्वोच्च प्रज्ञा के पथ पर चलता है , और विधर्मी सिद्धांतों का अनुसरण नहीं करता । श्रेष्ठ व्यक्ति अनित्यता के रूप को भली प्रकार समझ कर और यह जानकर कि यह संसार बालू में लगे वृक्ष के समान है , अपने असंतुलित चित्त में परिवर्तन लाकर उसे मलिन आचरण से वापस लाकर निर्मल आचरण में स्थापत करने का हर प्रयास करता है ।”
सन्दर्भ- बुध्द और उनका धम्म

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